Monday, October 11, 2021

कैसे लगती हो तुम

मत पूछो मुझे कैसे लगती हो तुम ?

जिसे खींचता रहूँ वो फोटो का पोज़ लगती हो तुम,
जीवन को बचाने वाली दवा का डोज़ लगती हो तुम,
बार बार सूंघने को मन करे नया - नया, खिला रेड रोज़ लगती हो तुम,

क्यूँ न तुमपे मैं ग़ज़ल कहूँ  शायरी का मुझको शबाब लगती हो तुम,
जिसे देख के मन मांसाहारी होने लगे मुझ शाकाहारी को वो कबाब लगती हो तुम,
यूँ तो वैसे कभी मैंने चखी नही पर ललचाती मुझको शराब लगती हो तुम,
यूँ तो एग्जाम में कुछ नही आता मुझको फिर भी सभी सवालों का जवाब लगती हो तुम,

सुगर के मरीज जो मीठा छोड़ चुके उनके लिए ज़रूरी नमकीन लगती हो तुम
लाखों अंखियों में मेघ घिरते हैं जब भी ज़रा सी ग़मगीन लगती हो तुम,
प्रोपर्टी को हड़प लूँ मैं ऐसी लफड़े की ज़मीन लगती हो तुम,

तुम्हे देख के मन नाचने को करने लगे मन का मयूर बोला घन लगती हो तुम,
जिसके समीप आके शीतलता मिलती है ऐसा चन्दन का वन लगती हो तुम,
परेशान जिसे आयकर वाले करते हैं ऐसा २ नंबर का धन लगती हो तुम,
मैं मार दूँ सबको तुम्हारे लिए मुझको तो संसद भवन लगती हो तुम.

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