पलाश
के दो फूल
यूनिवर्सिटी का नया सत्र शुरू हुआ,
और गर्मी का समय था । मनीषा, प्रिया, आराध्या, वसुंधरा, अजय और समीर डिपार्टमेंट के बाहर पेड़ की
छाँव में बैठे थे । ग्रेजुएशन का आखिरी साल पास करके सभी ने पोस्ट ग्रेजुएशन करने के लिए एडमिशन
लिया था । कोई क्लास थी नही इसलिए सभी दोस्त आपस में गप्पे लड़ा रहे थे और अपने - अपने
किस्से एक दूसरे को सुना रहे थे । तभी गले में गमछा डाले, कांधे पर बैग लटकाए एक सामान्य रंग रूप वाला लड़का आता
दिखा । वसुंधरा
जो कि बहुत ज़्यादा शैतानियाँ करती थी, वो उसको देखती ही बोली, “ये कोई न्यू एडमिशन
लगता है, आओ इसको परेशान करते हैं ।” मनीषा, प्रिया, और आराध्या भी उसकी हाँ में हाँ मिलाने लगे । अजय
और समीर भी बोले, “ठीक है तुम लोग इसे परेशान करो, तो आज कैंटीन में कोल्ड ड्रिंक
और समोसे पक्के ।”
चूँकि
गर्मी की छुट्टियों के बाद सब दोस्त मिल रहे थे, इसलिए सबके दिल और दिमाग में बहुत
सारी मस्तियाँ हिलौरे मार रही थीं । फिर जैसे ही वो लड़का पास पंहुचा तो वसुंधरा ने उसको आवाज़ लगाते हुए कहा,
“फ्रेशर ?” लड़का पसीने से लथपथ था, शायद ठीक से सुन नही पाया और बोला, “भास्कर” । वसुंधरा
ने फिर से पूछा, “न्यू एडमिशन ?” लड़का बोला, “हाँ.... गाँव से आया हूँ ।”
वसुंधरा समझ गयी कि ये लड़का उसकी बात समझ नही पा रहा है । फिर
भी शैतानी खोपड़ी मानने वाली कहाँ थी ? उसने सीधा सा पूछा, “यहाँ क्या करने आए हो
?” लड़का गमछे से अपना पसीना पोछते हुए बोला, “जी मेरा नाम भास्कर है और मुझे शर्मा
सर से मिलना है, वो हैं ना जो यहाँ के बड़े सर हैं, उनसे ही मिलना है । मेरे
पिता जी ने भेजा है और कहा है शर्मा सर से मिलकर रहने के लिए हॉस्टल की बात कर
लेना ।”
उसकी
भोली भाली बातें सुनकर वसुंधरा के मन में शैतानी सूझ उठी, उसने मनीषा और प्रिया को
आँख मारते हुए कहा, “शर्मा सर तो अभी थोड़ी देर पहले कहीं चले गए हैं, अब तो वो दो
घन्टे बाद ही मिलेंगे ।” अजय ने भी उसका साथ दिया और कहा, “यार! तुम थोड़ा सा लेट हो गए, अगर आधे घंटे
पहले आ जाते तो शर्मा सर तुम्हें मिल जाते अब तुम जाओ और कल जल्दी आना ।”
भास्कर ज़रा हताश सा हो गया, लेकिन वो बोला, “शर्मा सर दो घंटे में तो आ जायेंगे तब
मैं उनसे मिल लूँगा| उसने उन्हीं लोगों से पूछा, मैं यहीं कहीं बैठ कर इंतज़ार कर
लूँ ?” आराध्या उसको दूसरी तरफ का इशारा करते हुए बोली, “ठीक है, जाओ उस पेड़ के
नीचे बैठ जाओ ।” भास्कर फिर उस पेड़ की तरफ़ चला गया ।
इधर
सभी आपस में हंसने लगे, क्यूंकि बड़ी आसानी से उन सबने भास्कर को बेवकूफ़ बना दिया
था। सबको पता था कि शर्मा सर सुबह से
ही स्टाफ रूम में बैठे हैं । सब बार - बार भास्कर को देख रहे थे और
आपस में हंस रहे थे । लेकिन ना जाने क्यों वसुंधरा को कुछ अजीब सा लगने लगा ?
उधर
भास्कर ने पेड़ की छाँव में बैठकर अपने बैग से एक कागज़ का पैकेट निकाला और घास पर
रुमाल बिछा कर पैकेट से तीन रोटियां और गुड निकाल कर रख दिया और रोटियों के सामने
हाथ जोड़कर उन्हें खाना शुरू कर किया । अब सब उसे बड़े गौर से देख रहे थे । वसुंधरा ने तो अपनी पूरी ज़िन्दगी में किसी को इस तरह रोटी खाते हुए नही देखा
था ।
पता
नही क्यों वसुंधरा को भास्कर का ये सीधापन और सरलता आकर्षित सा करने लगे, वो बार –
बार भास्कर को देखने लगी । अचानक ही भास्कर उठा और उन लोगों
की तरफ़ आने लगा । वसुंधरा को कुछ डर का एहसास सा हुआ ।
भास्कर ने आते ही पूछा, “यहाँ कहीं हैंड पंप है क्या ? प्यास लगी है बहुत ज़ोर की” । तभी
प्रिया अपने पास से पानी की बोतल निकाल के उसे देती हुई बोली, “यहाँ हैंड पंप नहीं
है, लो इस बोतल से पानी पी लो ।” भास्कर ने बोतल ली और एक ही सांस में पानी की आधी बोतल ख़ाली कर दी और बोतल
देते हुए बोला’ “भगवान् आपको ख़ुश रखे” और वो फिर से पेड़ के नीचे जाकर बैठ गया ।
उसका
ऐसा व्यवहार उन सभी के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था । सभी ऐसे उसे देखने लगे जैसे कोई
नई चीज़ देख ली हो । कभी वो आपस में बातें कर रहे थे तो कभी उसकी तरफ़ देख रहे थे । बातों
– बातों में करीब एक घंटा गुज़र गया था, तभी समीर बोला, “यार, चलो कैंटीन चलते हैं
भूख लगी है।”
सभी ने उसको सहमति दी और फिर सब कैंटीन की तरफ़ चल पड़े । इस बीच वसुंधरा ने भास्कर को कई
बार देखा, भास्कर ने भी उन्हें जाते हुए देखा लेकिन वो चुपचाप बैठा रहा । और
फिर कैंटीन पंहुचकर सब मस्ती करने लगे और खाने – पीने लगे, और उसके बाद किसी का भी
वापस क्लास में जाने का मन नही हुआ, तो सब अपने - अपने घर की ओर निकल पड़े ।
इधर
वसुंधरा जब घर आने के लिए ऑटो में बैठी तो उसे कुछ अजीब सा लग रहा था । न
जाने क्यों उसका मन शांत नहीं था, कुछ बेचैनी सी थी, उसे लगा कि शायद उसने भास्कर
को परेशान करके अच्छा नही किया । उसने ख़ुद को बिजी करने के लिए अपने कान में हेड फ़ोन लगाकर म्यूजिक ऑन कर
लिया, लेकिन २ मिनट बाद उसे भी बंद करके रख दिया, आज उसे अपनी पसंद के गाने भी
अच्छे नहीं लग रहे थे । घर पंहुच कर उसने हाथ – मूँह धोया और जाकर अपने बिस्तर पे लेट गई और लेटे –
लेटे कब सो गई कुछ पता ही नही चला| आँख तब खुली जब माँ ने आकर जगाया और बोली, “और
कितना सोगी बेटा ? देखो शाम के साढ़े सात बज रहे हैं, उठो अब, देखो तुम्हारे पिता
जी भी आ गए हैं ।” उठती हूँ माँ, ये कहकर वसुंधरा ने लम्बी अंगड़ाई ली । और अपने बालों को सँभालने लगी ।
रात
हुई तो खाने की मेज पर वसुंधरा के साथ सब बैठे – माँ, पिता जी और छोटा भाई रिंकू । आपस
में बातें हो रही थीं और सभी खाने का आनंद ले रहे थे । खाना खाकर सभी ने टी वी देखा और
11 बजे के बाद सब सोने चले गए । वसुंधरा अपने कमरे में आई और उसने अपनी वो डायरी निकाली जिसमें वो हर दिन
अपने दिल की उन बातों लिखा करती थी, जो वो किसी और से ज़रा भी नहीं बताती थी । और
फिर उसने आज की बातों को लिखना शुरू कर दिया और आज भी उसकी डायरी में कुछ ऐसी
बातें लिखी गईं जो उसने किसी को भी नहीं बताई थी, और आज बातों में ज़िक्र था भास्कर
का ।
अगले
दिन वसुंधरा यूनिवर्सिटी आई और उसने क्लास भी अटेंड की, लेकिन उसके मन में एक सवाल
उठ रहा था कि, “कल भास्कर का क्या हुआ होगा ?” उसने अपने दोस्तों से बात करने की
कोशिश भी की, लेकिन सब अपनी मस्ती में रहे, किसी ने उसकी बातों पर ज़्यादा ध्यान
नही दिया । उसे लगा कि शायद भास्कर आज आएगा तो पता चलेगा कि, “कल क्या हुआ था ?” दिन के
चार बज गए लेकिन भास्कर आया नही और न ही किसी ने कुछ कहा फिर वसुंधरा अपने मन में
कुछ सवाल लेकर अपने घर की तरफ़ चल पड़ी । उसके मन में भास्कर को लेकर एक अजीब सी कशमकश चल रही थी ।
ऐसे
नौ दिन गुज़र गए लेकिन भास्कर नहीं आया, न ही उसका कोई ज़िक्र हुआ| उधर वसुंधरा के
मन में अभी तक वो सवाल घूम रहा था कि, “आखिर भास्कर के साथ क्या हुआ होगा ?” दसवें
दिन जब क्लास चल रही थी तभी बीच क्लास में किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी, “क्या मैं
अन्दर आ सकता हूँ ?” सभी की नज़रें दरवाज़े पर पंहुच गई । इजाज़त मिलने पर वो सबसे पीछे जाकर
बैठ गया । वो भास्कर ही था, वसुंधरा उसे देखते ही पहचान गई, उसे देख कर उसको अन्दर से
बड़ी ख़ुशी हुई । उसने सोचा कि, “क्लास के बाद वो उससे पूछेगी उसके बारे में” लेकिन क्लास के
बाद उसे पता ही नही चला कब भास्कर बाहर चला गया ? और फिर आया ही नहीं ।
अगले
दिन जब वसुंधरा क्लास में आई तो उसने देखा, भास्कर क्लास में बैठा है और कुछ पढ़
रहा है । क्लास
के बाद जब वो बाहर निकला तो उसने समीर और अजय से हाथ मिलाया और उनसे बातें करने
लगा| बातों – बातों में उसने अपने बारे में बताया कि, “वो अपने गाँव से यहाँ
यूनिवर्सिटी से पोस्ट ग्रेजुएशन करने आया है । इसके बाद वो और आगे की पढाई करेगा ।”
समीर और अजय को उसका नेचर बहुत अच्छा लगा उन लोगों ने भास्कर से दोस्ती भी कर ली । वसुंधरा
ने भी आगे बढ़कर उसके हाल - चाल लिए और हाथ मिलाकर दोस्ती की शुरुआत भी कर ली । भास्कर
को भी ये बहुत अच्छा लगा । और फिर थोड़े ही दिनों में भास्कर ने उन सभी से दोस्ती कर ली । मनीषा,
प्रिया, आराध्या, वसुंधरा, अजय और समीर सभी को उसका साथ अच्छा लगने लगा । वो
उन सभी से बड़ी अच्छी - अच्छी बातें करता था, उनके साथ वक़्त भी गुज़ारता था । और
अपना मन पढने में भी खूब लगाता था ।
उधर
वसुंधरा अक्सर ये कोशिश करती थी कि वो ज़्यादा से ज़्यादा भास्कर के साथ रह सके और
उससे ढेरों बातें कर सके । जब भी मौका मिलता वो उसके पास आ जाती और उससे खूब बातें करती| भास्कर भी उससे
हंस - हंस के बातें करता था । वसुंधरा अपने टिफ़िन में जो भी लेकर आती वो भास्कर को ज़रूर खिलाती । उन
दोनों को साथ में देखकर सारे दोस्त भी खूब हंसी मज़ाक करते थे । वसुंधरा अपने दिन भर की बातों को
अपनी डायरी में लिखा करती थी और उनमें अक्सर भास्कर का ज़िक्र ज़रूर होता था। भास्कर भी उसे दुनियाँ जहान के ढेरों
किस्से सुनाया करता था । वसुंधरा दिन – रात भास्कर के बारे में सोचा करती थी । वो इंतज़ार करती थी कि कब मौका
मिले और वो भास्कर से मिले और उससे बाते करे, और जिस दिन वो भास्कर से नहीं मिल
पाती थी उसका मन नहीं लगता था । भास्कर को भी उससे मिलना और बातें करना बहुत अच्छा लगता था ।
भास्कर
जब कभी छुट्टियों में अपने गाँव चला जाता तो वो वक़्त वसुंधरा से काटे नहीं कटता था ।
भास्कर जब हास्टल में रहता था तो उससे मिल भी लेती थी और फ़ोन पर बात हो जाती थी,
लेकिन जब वो गाँव में होता तो फ़ोन पर बात भी नहीं हो पाती थी । वक़्त गुज़रने लगा और धीरे – धीरे
डेढ़ साल पूरे होने को आए, भास्कर अब अपनी पढ़ाई में ज़्यादा व्यस्त हो गया । वो
अपना ज़यादातर वक़्त पढ़ाई लिखाई को देने लगा । वसुंधरा को उसका इतना व्यस्त होना अच्छा नहीं लगता था, लेकिन वो कुछ कह नही
पाती थी । क्योंकि उसने कभी भी अपने दिल की बातों को भास्कर को नहीं बताया था । शायद
इसीलिए भास्कर भी बहुत ज़्यादा ध्यान नहीं दे पाता था ।
आखिर
फाइनल एग्ज़ाम का टाइम नज़दीक आ गया, सब कड़ी मेहनत करने में व्यस्त हो गए, एक दूसरे
से सम्पर्क बहुत कम हो गया । वसुंधरा ने भी अपने आप को समझाया और वो भी पढाई में व्यस्त हो गई । सभी
के पेपर्स बहुत अच्छे हुए और सभी अपने - अपने सुनहरे भविष्य की कल्पनाओं में खो गए ।
एग्ज़ाम के बाद भास्कर ने वसुंधरा से मुलाक़ात की । दोनों साथ में बैठे, बातें की,
काफी वक़्त साथ गुज़ारा । और फिर जब वसुंधरा ने उससे पूछा कि, “तुम अब आगे क्या करोगे ?” तो भास्कर ने
उसे जवाब दिया, “मुझे अपनी ज़िन्दगी में बहुत सारे काम करने हैं, अपने माँ – बाप का
नाम रौशन करना है, बहुत सफल होना है मुझे, और इसके लिए मुझे बाहर जाना है, मैं अब
दिल्ली जाऊंगा और वहां से अपनी मंज़िल को तलाशुंगा ।” वसुंधरा को उसका ये जवाब अच्छा
नहीं लगा । वो कुछ परेशान सी हो गई, लेकिन
उसने भास्कर से कुछ कहा नहीं । फिर भास्कर ने जब उससे पूछा कि, “तुम अब क्या करोगी
? तुमने अब क्या सोचा है ?” वसुंधरा ने बुझे हुए स्वर में कहा, “कुछ पता नही, कुछ
भी सोचा नही है ।” और फिर दोनों विदा होकर अपने - अपने रस्ते चल पड़े ।
वक़्त तेजी से गुज़रने लगा और देखते ही देखते 6 महीने बीत गए और इन 6 महीनों में
सिर्फ 3 बार वसुंधरा और भास्कर की बात हुई । भास्कर अपनी दुनियाँ में व्यस्त था और
वसुंधरा उसी के ख्यालों में खोई रहती थी । कभी वो कविता लिखा करती थी, कभी वो अपनी
डायरी पढ़ा करती थी, कभी घंटो खिड़की से बाहर निहारा करती थी, शायद किसी को ढूंढा
करती थी । उसके माँ और पिता जी जब उससे कुछ बात करते थे या कुछ पूछते थे वो अक्सर
शांत हो जाती थी, उन्हें लगता था कि शायद बेटी को कोई तकलीफ़ है जो वो उनसे बताती
नहीं है । कहीं उसका मन नहीं लगता था, न तो कोई त्यौहार उत्साह से मानती थी, न ही
किसी पार्टी या फंक्शन में जाती थी, न ही किसी रिश्तेदार के घर जाती थी । बस उसकी
दुनियाँ उसके घर और उसके कमरे तक ही सीमित हो गई थी । जो वसुंधरा किसी समय पूरे घर
को सिर पर उठा लेती थी, वो अब इतनी खामोश रहती थी कि जैसे तूफ़ान थमने के बाद
सन्नाटा हो जाता है । अब तो उसने अपने दोस्तों से बात करना भी बंद कर दिया था, माँ
– बाप ने जब कहा कि, “बेटा! अगर कोई कोर्स करना चाहती हो या और आगे पढना चाहती हो
तो पढ़ लो, पर यूँ उदास - उदास न रहो” पर उसने मना कर दिया| उसने कह दिया, “मुझे
कुछ नही करना और कहीं नहीं जाना, बस घर में ही रहना है ।” माँ – बाप को उसका ऐसा
व्यवहार ठीक नहीं लगा और उन्हें बहोत दुःख हुआ । लेकिन वो ये समझ गए कि वसुंधरा को
कोई परेशानी ज़रूर है जिसे वो बता नही रही है ।
एक अरसा गुज़र चुका था लेकिन भास्कर की वसुंधरा से बात नहीं हुई थी । वसुंधरा
एकदम गुमसुम रहती थी । माँ – बाप ने सोचा कि, “कब तक आखिर बेटी ऐसे हाल में रहेगी
? यूँही तो ज़िन्दगी नहीं चलती । अगर वो कुछ आगे करना नही चाहती है तो उसकी शादी
करा देते हैं । शायद शादी के बाद वो पहले की तरह हो जाए, घर गृहस्थी में मन लगेगा
तो जो एकाकीपन है है ज़िन्दगी का वो दूर हो जायेगा।” माँ – बाप को ये भी एहसास था
कि ज़्यादा वक़्त अगर बेटी ऐसे हाल में रही तो लोग तरह – तरह की बातें बनायेंगे ।
बहुत सोचने समझने के बाद उन्होंने वसुंधरा से कहा, “बेटी! अब हम तुम्हारी शादी कर
देना चाहते हैं, तुम तैयार हो शादी के लिए ? ” वो बोली – “आप लोगों को जैसा बेहतर
लगे, आप लोग करिए । मुझे कोई प्रॉब्लम नही है ।”
बेटी की तरफ़ से कोई ऐतराज़ न होने पर माँ -
बाप ने उसके लिए जोर - शोर से लड़का देखना शुरू कर दिया । कुछ ही दिनों में
वसुंधरा के लिए एक बहुत अच्छा रिश्ता मिल गया| लड़का आई. ए. एस. अधिकारी था । लड़के
की कुंडली भी वसुंधरा की कुंडली से मिल गई थी । लड़के की फ़ोटो जब घर आई तो माँ ने
वसुंधरा को फ़ोटो दिखाई तो बिना फ़ोटो देखे वसुंधरा ने कह दिया, “माँ! मुझे फ़ोटो
देखने की कोई ज़रूरत नहीं है, आप लोगों ने मेरे लिए जो भी लड़का पसंद किया होगा वो
अच्छा ही होगा । मेरे फ़ोटो देखने या न देखने से कोई फर्क नहीं पड़ता । आप लोग जो
चाहेंगे और जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा । मुझे आप की पसंद बिना देखे भी मंज़ूर है ।”
बेटी से ऐसा जवाब सुनकर माँ की आँखे भर आई, और मन ही मन वो सोचने लगी कि, “कितनी
अच्छी है उनकी बेटी, जो उनका इतना सम्मान करती है और उनकी पसंद को अपनी पसंद मानती
है, किसी माँ – बाप को और क्या चाहिए ?” और फिर कुछ ही दिनों में शादी की
तैयारियाँ शुरू हो गई, उधर वसुंधरा ने भी अपने दिल पर पत्थर रख लिया था और भास्कर
की यादों को भुलाना शुरू कर दिया था, अब वो उसके बारे में सोचना भी नही चाहती थी,
क्यूंकि अब वो किसी और की होने जा रही थी ।
और फिर शादी का दिन आ ही गया पूरा घर मेहमानों से भरा हुआ था, ख़ुशी के गीत गए
जा रहे थे, वसुंधरा को सजाया जा रहा था, मेहँदी और हल्दी लग रही थी, सहेलियां हँसी
– मज़ाक कर रही थीं, पुराने दोस्तों में मनीषा, आराध्या, अजय और
समीर आए हुए थे, प्रिया देश से बाहर थी इसलिए वो नहीं आ पाई । सभी बहुत खुश थे, आपस में पुराने किस्से सुने – सुनाए जा रहे थे । एक दूसरे
की टांग खींच रहे थे । सब वसुंधरा को छेड़ रहे थे, आज बहुत दिनों बाद वो इतना खुलकर
हँस पा रही थी, आज उसने ज़माने बाद थोड़ी बहुत शरारत भी की, आज वो इतना ख़ुश थी कि एक
बार तो उसने ये भी सोच लिया, “जैसे सब दोस्त आए हैं काश वैसे ही भास्कर भी आ जाता
और उसकी शादी होते देखता तो उसे बहुत ख़ुशी होती ।” लेकिन किसी को भी भास्कर के
बारे में कोई ख़बर नहीं थी ।
खैर रात हुई और दरवाज़े पे बारात आ गई, घर के सभी लोग स्वागत - सत्कार में लग
गए, रस्में अदा होने लगी और घोड़ी पे सवार दुल्हे राजा को उतार कर बिठाया गया ।
उनकी आवभगत होने लगी । लड़के वाले भी स्वागत – सत्कार से बड़े ख़ुश हुए । मनीषा,
आराध्या, अजय और समीर भी परिवार के सदस्य की तरह काम में लगे हुए थे, किसी को
बारातियों की देख भाल करनी थी, तो किसी को खाने का देखना था, तो किसी को वसुंधरा
के पास रहना था, सब बड़े व्यस्त थे । और फिर आई फेरों की
बारी । लाल रंग के जोड़े में वसुंधरा किसी राजकुमारी से कम नहीं लग रही थी, उसने
अपना आधा चेहरा घूँघट से ढका हुआ था, और दूल्हे राजा भी शेरवानी पहने सर पे सेहरा
सजाए बहुत जंच रहे थे । लेकिन वसुंधरा ने सर उठा कर कर एक बार भी अपने दूल्हे को
नहीं देखा । एक, दो, तीन और फिर सात फेरे पूरे हो गए, सभी रिश्तेदार फूल बरसाकर
बधाई दे रहे थे । हर कोई ख़ुश था, चाहे वो लड़के वालों की तरफ़ से हो या फिर लड़की
वालों की तरफ़ से ।
सभी लोग दूल्हा – दुल्हन को बधाई देने लगे, कोई हाथ मिला रहा था, कोई आशीर्वाद
दे रहा था, कोई सर पर हाथ फेर रहा था, और फिर सबसे आखिर में वसुंधरा के
यूनिवर्सिटी के दोस्त भी उसे गले लगकर बधाई देने लगे । मनीषा,
आराध्या और अजय के बाद जैसे ही समीर ने उसे गले लगाया, किसी ने आवाज़ दी, “वसुंधरा
जी लाइन में हम भी हैं, हमें भी ज़रा गले से लगा लीजिए” वसुंधरा ये सुनते ही चौंक
पड़ी, ये वो आवाज़ थी, जिसे वो लाखों की भीड़ में पहचान सकती थी । ये वो आवाज़ थी जिसे सुनने की हसरत उसे न जाने कबसे थी ? ये वो ही आवाज़ थी,
जिसके बारे में उसने सोच लिया था कि शायद अब कभी दुबारा सुन न सके । उसने सर उठा
के देखा.... लेकिन उसे समझ ही नही आया कि ये आवाज़ आई कहाँ से ?
अचानक उसकी नज़र अपने दूल्हे पर पड़ी, जिसने अभी – अभी अपना सेहरा हटाया था,
वसुंधरा की आँखे फटी की फटी रह गई, उसकी नज़रें हट नहीं पा रही थी, उसके मुँह से
आवाज़ नही निकल पा रही थी। ऐसा लग रहा था कि उसकी ज़बान चिपक गई है । वो कोई और नहीं
भास्कर था, वो ही भास्कर जिसके इंतज़ार में वसुंधरा एकदम बाँवरी हो गई थी । और
भास्कर ने ही उसे आवाज़ दी थी । भास्कर के चेहरे पर एक मासूम से हंसी थी और वसुंधरा
एकदम बेसुध सी हो गई थी । वो समझ नही पा रही थी क्या करे और क्या न करे ?
भास्कर उसके पास आया, और बोला, वसुंधरा जी, “अब हमें भी गले से लगा लीजिए, अब
तो हमने आपसे शादी भी कर ली है, वसुंधरा बिना कुछ बोले उसके गले लग गई और उसकी
आँखों से आंसुओं की झड़ी लग गई.......................”
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