छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था... By RJ Nikhil
ये कविता मैंने तब लिखी, जब एक बड़े शहर में आकर मैंने जाना कि यहाँ सब कुछ तो है लेकिन बस अपनापन नहीं है, चकाचौंध भरी सड़कें तो हैं पर साथ चलने वाला कोई हमराही नहीं....
आशा करता हूँ, कि मेरी ये कविता आपके हृदय तक पंहुचेगी.
सुनियेगा.........
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
हर कोई मेरा अपना था,
हर कोई रिश्तेदार था.
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
न घर में कोई कुण्डी थी,
न मोहल्ले में चौकीदार था,
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
मिट्टी के घर में रहते थे,
और घर भी छोटे होते थे,
पर हर घर में रहने वाला,
बहुत बड़ा दिलदार था,
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
हर घर में आना – जाना था,
हर घर में ये व्यवहार था.
हर कोई मेरा अपना था, हर कोई रिश्तेदार था.
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
बाबा की चौपाल थी,
चाचा का लाड प्यार था.
सबकी हर तीज थी,
सबका हर त्यौहार था,
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
मौसी के रसगुल्ले थे,
दादी का अचार था,
हर सुबह चाची के हाथ का,
दलिया भी तैयार था,
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
खेल हमारे गुल्ली डंडा, कंचा और पतंग,
क्रिकेट खेलने से हमें, कहाँ कोई प्यार था,
आम के पेड़ पर झूला झूलें,
मस्ती भरा गाँव का, अपना वो बाज़ार था,
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
नदी किनारे हम रोज़ नहाते,
स्विमिंग पूल भी बेकार था,
रोज़ किस्से सुनते, हम बच्चे सब नानी माँ के,
आपस में इतना प्यार था,
छोटा सा गाँव मेरा ख़ुशियों का संसार था...
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